हमारी धरती का पर्यावरण जीवनदायिनी है लेकिन आज बढ़ती आबादी, विकास की होड़, और संसाधनों के अतिदोहन के कारण इस पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। चिंपको आंदोलन इन चुनौतियों का सामना करने और पेड़-पौधों के महत्व को रेखांकित करने वाले जन आंदोलनों की एक अग्रणी मिसाल है। इस साल इसकी 50वीं वर्षगांठ समारोहों के साथ, आइए इस आंदोलन की यात्रा और आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता के बारे में जानें।
क्या था चिपको आंदोलन?
- अहिंसक आंदोलन: यह एक अनूठा जन आंदोलन था जो 1973 में उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले में सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी आदि के नेतृत्व में शुरू हुआ।
- वनों की कटाई रोको: इसका मूल उद्देश्य हिमालयी क्षेत्र में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाना था।
- अद्वितीय रणनीति: आंदोलनकारियों ने वृक्षों को बचाने के लिए एक अहिंसक तरीका निकाला – वे पेड़ों को अपने शरीर से चिपका लेते थे ताकि ठेकेदार उन्हें नुकसान ना पहुंचा पाएं। इसी कारण इसे ‘चिंपको आंदोलन’ नाम मिला।
- जन-भागीदारी की मिसाल: स्थानीय गांववालों ने, विशेषकर महिलाओं ने, इस आंदोलन में भरपूर हिस्सेदारी निभाई। इसने पर्यावरण संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता बढ़ाई और सामूहिक कार्रवाई की शक्ति का प्रदर्शन किया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- बिश्नोई समुदाय: चिपको आंदोलन की मूल भावना 18वीं शताब्दी के उस बलिदान में निहित है, जहां राजस्थान के बिश्नोई समाज के लोगों ने पवित्र वृक्षों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।
- प्रकृति और जन-जीवन के बीच संबंध: प्राचीन काल से ही, ग्रामीण समुदाय अपने जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर थे। चिपको आंदोलन इसी सहजीवन के महत्व को स्थापित करने की कोशिश थी।
इको-फेमिनिज्म और चिपको आंदोलन:
चिपको आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी ने ‘इको-फेमिनिज्म’ को सामने लाया, एक दर्शन जो पर्यावरण संरक्षण एवं महिला सशक्तिकरण के बीच संबंध बताता है।
- इको-फेमिनिज्म की विचारधारा: इको-फेमिनिज्म एक दर्शन और विचारधारा है जो पर्यावरणीय मुद्दों और महिलाओं के अधिकारों और भूमिकाओं के बीच संबंधों पर प्रकाश डालती है। यह इस विचार पर केंद्रित है कि प्रकृति का विनाश एवं महिलाओं का उत्पीड़न पितृसत्ता और सामाजिक असमानता से जुड़े हुए हैं।
- महिलाओं का योगदान: सदियों से, महिलाएं खेती, पानी, ईंधन के लिए प्रकृति पर निर्भर रही हैं। इस रिश्ते के कारण उन्हें पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान प्राप्त है, जो टिकाऊ जीवनशैली अपनाने के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए, इको-फेमिनिज्म पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नीति एवं कार्रवाई में महिलाओं के नेतृत्व पर जोर देता है।
चिपको आंदोलन की विरासत और प्रासंगिकता:
यह आंदोलन भले ही इतिहास का हिस्सा बन चुका हो, इसकी सीखें आज भी उतनी ही जरूरी हैं।
- पर्यावरण संरक्षण पर जोर: चिपको आंदोलन पेड़ों को बचाने से कहीं अधिक है। यह हमें प्रकृति की हर इकाई – जंगल, पहाड़, नदियों – की रक्षा के लिए जागरूक करता है।
- सामुदायिक सहभागिता : यह साबित करता है कि आम-जन को एकजुट होकर बड़े बदलाव लाने की ताकत है। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए वैश्विक स्तर पर इसी तरह की सामूहिक कार्रवाई जरूरी है।
- स्थायी विकास की नींव: यह आंदोलन दिखाता है कि पर्यावरण की रक्षा करते हुए प्रगति संभव है। इसने स्थायी विकास (Sustainable Development) के विचार को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इको-फेमिनिज्म का प्रभाव और संबंधित आंदोलन:
चिपको ने पर्यावरण से जुड़े कई आंदोलनों को प्रेरित किया है, जहां महिलाएं अग्रणी रही हैं:
- नर्मदा बचाओ आंदोलन (1985): मेधा पाटकर के नेतृत्व में नर्मदा नदी पर बड़े बांधों के निर्माण का विरोध।
- अप्पिको आंदोलन (1980 का दशक): कर्नाटक में वनों की रक्षा के लिए चिपको से प्रेरित आंदोलन।
- साइलेंट वैली आंदोलन (1973): केरल में उष्णकटिबंधीय वर्षावन को बचाने का एक सफल प्रयास।
निष्कर्ष:
चिपको आंदोलन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने साहस, नेतृत्व, और प्रकृति के प्रति समर्पण का एक उदाहरण स्थापित किया। चिपको की विरासत ने भारत को पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक राष्ट्र बनने के लिए प्रेरित किया है, और इसकी कहानी दुनिया भर में आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।