अमेरिकी संसद (कांग्रेस) ने हाल ही में ‘तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को बढ़ावा देना’ अधिनियम पारित किया है। यह अधिनियम तिब्बत और चीन के बीच विवाद को वार्ता के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने पर जोर देता है। अधिनियम के अनुसार, यह अमेरिकी नीति है कि तिब्बत और चीन के बीच विवाद का समाधान संयुक्त राष्ट्र चार्टर सहित अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार और बिना किसी पूर्व शर्त के होना चाहिए।
अधिनियम के प्रमुख बिंदु:
अमेरिकी नीति:
यह अधिनियम तिब्बत और चीन के बीच विवाद को शांतिपूर्ण वार्ता के माध्यम से हल करने की नीति को बढ़ावा देता है। यह नीति संयुक्त राष्ट्र चार्टर और अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत होनी चाहिए।
मध्यम मार्ग दृष्टिकोण:
यह अधिनियम दलाई लामा के “मध्यम मार्ग दृष्टिकोण” का समर्थन करता है। इस दृष्टिकोण के तहत तिब्बत पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा बना रहेगा, लेकिन तिब्बतियों को सार्थक स्वायत्तता प्राप्त होगी।
तिब्बत-चीन विवाद का इतिहास:
20वीं सदी का संघर्ष:
20वीं सदी की शुरुआत में चीन और तिब्बत के बीच एक संक्षिप्त सैन्य संघर्ष हुआ था। इस संघर्ष के बाद तिब्बत ने 1912 में स्वयं को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था और 1950 तक एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में बना रहा।
1951 का समझौता:
1951 में, दलाई लामा के प्रतिनिधियों ने एक 17-सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते ने पहली बार चीन को तिब्बत पर संप्रभुता प्रदान की थी। चीन का दावा है कि यह दस्तावेज तिब्बत पर चीनी संप्रभुता का प्रमाण है, जबकि तिब्बत का कहना है कि उसे इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था।
तिब्बत पर भारत का रुख:
1959 का विद्रोह:
1959 में दलाई लामा ने चीन के खिलाफ एक विद्रोह किया, जो असफल रहा। इस विद्रोह के बाद दलाई लामा ने भारत में शरण ली।
2003 की घोषणा:
2003 में भारत और चीन ने “संवंधों और व्यापक सहयोग के सिद्धांतों पर घोषणा” पर हस्ताक्षर किए थे। इस घोषणा के तहत भारत सरकार ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी।
निष्कर्ष:
अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित यह अधिनियम तिब्बत और चीन के बीच विवाद के समाधान के लिए एक महत्वपूर्ण पहल है। यह तिब्बतियों के अधिकारों की रक्षा और क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस अधिनियम से अमेरिका की प्रतिबद्धता का पता चलता है कि वह अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत तिब्बत-चीन विवाद का समाधान चाहता है।
अमेरिकी कांग्रेस की इस पहल से तिब्बत-चीन विवाद के समाधान के प्रयासों को नई दिशा और गति मिल सकती है। इसके अलावा, यह तिब्बतियों को सार्थक स्वायत्तता प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो उनके अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भविष्य में इस अधिनियम के तहत तिब्बत-चीन विवाद के समाधान के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं और कैसे दोनों पक्ष इस दिशा में आगे बढ़ते हैं।
FAQs:
‘तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को बढ़ावा देना’ अधिनियम क्या है?
यह अधिनियम अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित किया गया है, जिसका उद्देश्य तिब्बत और चीन के बीच विवाद को शांतिपूर्ण वार्ता के माध्यम से हल करना है। यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर और अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत तिब्बतियों को सार्थक स्वायत्तता प्रदान करने का समर्थन करता है।
मध्यम मार्ग दृष्टिकोण क्या है?
मध्यम मार्ग दृष्टिकोण दलाई लामा द्वारा प्रस्तावित एक दृष्टिकोण है, जिसमें तिब्बत पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा बना रहता है, लेकिन तिब्बतियों को सार्थक स्वायत्तता प्रदान की जाती है, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान और अधिकार सुरक्षित रहते हैं।
तिब्बत-चीन विवाद का इतिहास क्या है?
तिब्बत-चीन विवाद का इतिहास 20वीं सदी की शुरुआत में है, जब चीन और तिब्बत के बीच एक संक्षिप्त सैन्य संघर्ष हुआ था। 1912 में तिब्बत ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया था, लेकिन 1951 में एक समझौते के तहत चीन ने तिब्बत पर अपनी संप्रभुता स्थापित की।
तिब्बत पर भारत का रुख क्या है?
1959 में दलाई लामा ने चीन के खिलाफ विद्रोह किया था, जो असफल रहा। इसके बाद दलाई लामा ने भारत में शरण ली। 2003 में भारत और चीन ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा मान्यता देने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।